Introduction of life of Maharshi Sadguru Sadafal dev Ji Maharaj vihangam yoga
महर्षि सदगुरु सदाफल देव जी महाराज का जीवन परिचय विहंगम योग
नाम – सदगुरु सदाफल देव जी महाराज [विज्ञानानन्द]
जन्म – भाद्रकृष्ण चतुर्थी वि. सं. 1945 [25 अगस्त सन् 1888]
जन्म स्थान – पकड़ी ग्राम, जिला– बलिया, उत्तर प्रदेश।
पिता- राजर्षि हनुमान जी राय (बाबा स्कम्भ मुनि)
माता- महारानी मुक्ति देवी
देह त्याग – माघ शुक्ल नवमी वि.सं. 2010 [ 11 फरवरी 1954 ]
देहत्याग स्थान – झूँसी, प्रयाग, इलाहाबाद।
आज, आध्यात्मिकता के क्षेत्र में, यह अक्सर देखा जाता है कि यदि कोई साधक, संत या महात्मा कोई छोटी उपलब्धि हासिल करता है, तो वह इसे आध्यात्मिक दुनिया की सर्वोच्च उपलब्धि मानता है और उसे अपने नाम के साथ जोड़कर पदोन्नत किया जाता है। करने लगता है। अध्यात्म इतना आसान नहीं है जितना कुछ लोग समझते हैं। आइए हम थोड़ा विचार करें कि इस दुनिया के विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम कितना समय देते हैं और फिर हमारी उपलब्धि क्या है?
एक वनस्पति विज्ञान का अध्ययन करने के लिए हमें वर्षों तक काम करना होगा और फिर विशिष्ट शब्दों में हमें मातम के विज्ञान के बारे में थोड़ा जानना होगा। इस छोटे से विषय की पूर्णता में आने के लिए हमें शोध की आवश्यकता है, फिर भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना इतना आसान नहीं है। लेकिन यह एक ऐसी विडंबना है कि ईश्वर जो पूरी सृष्टि का नियामक है, जिसकी शक्ति पूरी सृष्टि को संचालित कर रही है, जो सार्वभौमिक है, जो सर्वज्ञ है, जो मालिक है, हमें उस परमात्मा को जानने का कोई समय नहीं है और यदि छोटा है यहां तक कि अगर समय है, तो हम केवल प्रारंभिक चरण में पूर्ण विराम लगाते हैं।
वस्तुतः ध्यान-साधना में प्रवेश करने के लिए और प्रारम्भिक पात्रताएँ निर्माण करने में इन पूजा-स्थितियों का किंचित् योगदान रहता है। लेकिन जब सद्गुरु के ज्ञान-प्रकाश में आन्तरिक साधना प्रारम्भ हो जाती है तो ये प्रारम्भिक पूजा-आराधना की उपयोगिता स्वत: कम हो जाती है। यह एक विदम्बना है कि बहुत से लोग जीवन-पर्यंत उसी समान प्रारम्भिक पूजा-अर्चना और कर्मकांडों में उलझे रह जाते हैं और आन्तरिक साधना में प्रवेश ही नहीं कर पाते हैं।
कोई-कोई जब पूजा के आन्तरिक-पथ पर थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो जरा-सी प्राप्ति पर ही मंत्रमुग्ध हो उठते हैं और वहीं पर पूर्णविराम लगा देते हैं। कोई-कोई मनस्वी ही इस साधना-पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते चले जाते हैं और अपनी यात्रा को वहीं विराम देते हैं, जहाँ ज्ञान की पूर्णता होती है। वास्तव में ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ, आप्त महर्षि सद्गुरु कहलाते हैं। ज्ञान के तत्त्वदर्शी ब्रह्मनिष्ठ महान् आत्मा को ही ुरु सद्गुरु ‘शब्द से विभूषित किया जाता है। ऐसे अध्यात्म के पूर्णज्ञानताता सद्गुरु का मिलना ही आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण सोपान बन जाता है।
महर्षि सदाफल देव जी महाराज ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु थे, जिनकी अवतरण भद्रकृष्ण चतुर्थी वि 0 सं 0 1945 [25 अगस्त सन् 1888] को उत्तर प्रदेश के बलिया जिला अन्तर्गत पकड़ी ग्राम पिता पिता राजर्षि हनुमान जी राय बाबा स्कम् मुनि, और माता श्रीमती स्व 0, उदार देवी हुआ यहां हुआ। प्रसिद्ध सेंगर-वंशीय इस ऋषिकुल की उत्पत्ति महर्षि शृंगी से मनी जाती है, जिनके बारे में कहा जाता है कि राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ को उन्होंने ही करवाया था। महर्षि शृंगी की शादी राजा दशरथ के मित्र अंगदेश के राजा रोमपाद की कन्या से हुई थी। इसी शृंगी ऋषि और शान्ता से उत्पन्न सन्तति को सेंगर-वंश ने कहा है। महर्षि सदाफल देव जी महाराज की पूर्व पीढ़ी में भी कई त्यागी सन्त-महात्मा हो चुके हैं। इन बाबा लालजी राव का नाम बेहदन्तपन के साथ लिया जाता है। उसी बाबा लालजी राव की छठी पीढ़ी में महर्षि सदाफल देव जी महाराज का अवतरण हुआ।
आपमें बचपन से ही साधु-प्रवृत्ति थी और छोटी अवस्था में ही गीता-रामायण का पाठ करने लगे थे। आप एक चैकी पर बैठ जाते थे और सभी लड़कों से कहते थे कि सब लोग हमें प्रणाम करें। एक छोटे लड़के का इस प्रकार का स्वभाव निश्चय ही उनकी महानता को दर्शाता है। इतना ही नहीं स्वयं कथावाचक बनकर बच्चों के बीच कथा कहने का स्वाँग करते हुए प्रसाद भी बाँटते थे। लड़कों को लेकर कभी-कभी रामलीला भी करते थे। बाल्यावस्था में ही गाँव के एक शिव-मन्दिर में जाकर शिव-स्तोत्र का पाठ किया था। वे भगवान् से प्रार्थना भी करते थे कि हे प्रभु! मुझे वास्तविकता पाप कल की ओर उन्मुख करें। एक लड़के का ऐसा धार्मिक स्वभाव लोगों को अचरज में डाल देता था।
आप गाँव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ते थे लेकिन उनका सात्विक और अद्भुत व्यवहार देखकर शिक्षक भी दंग रह जाते थे। स्वामीजी मंत्रजाप करते-करते बेसुध भी हो जाते थे। उन्हें एक पूर्ण ज्ञान की तलाश थी, जिसके लिए उनके चेहरे पर बराबर एक भाव विद्यमान रहता था। स्वामीजी जब 11 साल के हुए तो उन्हें वेदों को पढ़ने की इच्छा हुई। इसके लिए वे काशी भी गए। लेकिन उस समय के रूढ़िवादी पंडितों ने उन्हें क्षत्रिय-कुल का जानकर वेद पढ़ाने से प्रेरित कर दिया।) उन्हें क्या पता था कि एक दिन वह लड़का चारों ओर वेदों का ब्रह्मविद्यात्मक भाष्य लिखेगा?
स्वामी जी में बचपन से ही वैराग्य-भाव उदित होने लगा था। वे साधु-सन्तों की खोज में रहने लगे। कई सन्त-महात्माओं का दर्शन भी किया लेकिन तृप्ति नहीं हुई। उन्हें लगता था कि परमात्मा के नाम पर जो भी प्रारम्भिक पूजा-अर्चना समाज में प्रचलित हैं, वे परमात्मा-प्राप्ति के सही मार्ग नहीं हैं। परमात्मा की ओर बढ़ने के ये प्रारम्भिक सोपान हो सकते हैं। इसी उधेड़बुन में वे सत्यज्ञान की तलाश में सर्वत्र घूमने लगे। उनकी यह यात्रा तब तक जारी रही जब तक उन्हें पूर्ण सद्गुरु नहीं मिल गए।
उन्हें सत्यज्ञान का मार्ग मिल गया। साथ ही उन्हें यह भी पता चल रहा है कि वे किस उद्देश्य से कहाँ से आये हैं? स्वामीजी को अपने अवतरण का वास्तविक ज्ञान हो गया। वे सद्गुरु-पद पर प्रतिष्ठित हो गए। लेकिन उनकी आध्यात्मिक यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आये हैं। उनकी अवतरण ही अध्यात्म के शुद्ध ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए हुआ था।
अध्यात्म-मार्तण्ड महर्षि सदाफल देव जी महाराज का अवतरण तो संसार के आध्यात्मिक कल्याण के लिए ही हुआ था। ईश्वरीय ज्ञानदाय को प्रकट करने के लिए ही मुक्तिधाम से आपकी अवतरण इस धराधाम पर हुआ। इसलिए उन्होंने ‘स्वर्णवेद इस में इस स्थिति के बारे में संकेत देते हुए कहा-
मैं तो कुतूहल मात्र में, मुक्ति द्वार से आय।वही शब्द का द्वार है, चेतन चेतन जाय।।-स्वर्वेद 1/7/11
सद्गुरुदेव ने मुक्ति से संसार में आने का संकेत यहां दिया है। मुक्ति से आवृत्ति के ज्ञान का उन्हें विस्मरण नहीं है। इसी द्वार को चेतन-पथ कहते हैं, जो द्वार से जीवात्मा जाते हैं। स्वामीजी उसी मुक्ति-द्वार से इस संसार में आये हैं। सुपवेद के भाष्यकार अनन्त श्री आचार्य धर्मचन्द्रदेव जी महाराज इस दोहे के भाष्य के अन्तर्गत लिखते हैं – लिखते ‘योगियों में विशिष्ट ज्ञान रहता है। वे बौद्धिक ज्ञान से सत्य-सिद्धान्त का निरूपण नहीं करते।
किसी भी सिद्धान्त का निरूपण सत्यद्रष्टा आनुभविकयनानी ही करता है, जिसे सभी तत्त्वों का निवारण करने वाले चिकित्सक हैं। जिनके बारे में उनके सिद्धान्त निश्चय करने के लिए तर्क, प्रमाण और बुद्धि के विचार की आवश्यकता हो जाती है, वे ऋषि नहीं हैं। ऋषि तत्त्वद्रष्टा अनुभवी ही होता है। इस पद में एक स्पष्ट तत्त्व प्रकट होता है कि मुक्तात्माओं संसार के काल के लिए प्रकट होते हैं और अध्यात्म का संदेश जगजीवों को देकर समकालीन परमानन्द को प्राप्त कराती हैं।
मुक्ति से आवृत्ति का स्मरण ग्रन्थकार सद्गुरुदेव के विशेष ज्ञान का सूचक है। ऐसी ही आत्माएँ स्वयंसिद्ध सद्गुरु या अभ्याससिद्ध सद्गुरु होकर ब्रह्मविद्या का विमल उपदेश दे, जगजीवों को अमृत परमानन्द की प्राप्ति कराती हैं।’’ इस प्रकार स्वामीजी के अवतरण की पृष्ठ भूमि यहाँ स्पष्टतः दृष्टिगत होती है। इसी कड़ी में स्वामीजी आगे कहते हैं कि उस मुक्ति-द्वार सेे नीचे उतरने के ज्ञान का मुझे विस्मरण नहीं हुआ है। यह प्रभु की महिमा ही है कि अब तक वह ज्ञान मेरे अन्दर स्मरण होकर प्रकट हो रहा है।
वह ज्ञान बिसरा नहीं, स्मरण होय मोहि आय।यह महिमा प्रभु जानिये, भक्तन उर बस आय।।– स्वर्वेद 1/7/12
शुद्ध प्रभु-भक्त ही इस महान् महिमा को समझने के लिए, जिसकी ओर नागगुरुदेव ने यहां संकेत दिया है।
ऐसे महर्षि सदाफल देव जी महाराज जिन्हें उनके पूर्व-मुक्ति का भी ज्ञान था, फिर भी जब योग-साधना में प्रवृत्त हुए तो बहुत से सामान्य अनुभवों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। विशेष अनुभव के रूप में शब्द और प्रकाश की अनुभूति होने पर भी उसे निराशात्मक प्रकाश ही कहा और बराबर आगे के मार्ग की प्राप्ति के लिए अग्रसर रहा। वे चाहते हैं तो योग के प्रारम्भिक अनुभवों को ही हासिल मानकर अपने मत का प्रचार करने लगते हैं, लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया।
वे हमेशा परमात्म-ज्ञान की पूर्णता के लिए अग्रसर होते चले गए। उन्हें ऐसा लगता था कि जो परमात्मा इन्द्रियों, मन और बुद्धि की पहुँच के परे है, उसे उसी के माध्यम से कैसे जाना है? उनकी साधना की यात्रा निरंतर आगे बढ़ती जा रही है।
स्वामीजी प्रभु-प्राप्ति के मार्ग में अनवरत आगे बढ़ते जा रहे थे। इसी क्रम में जब एक सन्त-विशेष स्वामीजी को मिले हैं, तो आपको शान्ति मिली है और उस सन्त द्वारा सम्पलाई साधना को वृत्तिकुत आश्रम की पर्णकुटी के नीचे एक गुफा में करने लगे हैं। फिर यहां से आश्रम के दक्षिणी भाग स्थित उद्यान में गुफा में योगाभ्यास करने लगे। यहाँ पर जब अधिक लोग आते-जाते लगे फिर उस स्थान पर वि 0 सं 0 1963 [ई 0 स 0 01906] में चले गये जिसे आज सभी वृत्तात्मक गुफा के नाम से जानते हैं। स्वामीजी की खपरैलवे हममें से बहुत लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है। उसी स्थान पर आज पांच तल्ला स्मृति-केन्द्र बना हुआ है, जिसके निचले हिस्से में अभी भी उस पुरानी गुफा का स्थान सुरक्षित है।
इस वृत्ताटिकूट की गुफा में अनवरत योगाभ्यास करने के पूर्व जब स्वामी जी इसके दक्षिणी दिशा की ओर स्थित उद्यान में साधनारत थे तो उस समय कुछ नामधारी साम्प्रदायिक व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा के लिए ईर्ष्यात्मक हो गए हैं। वे लोग प्रचार करने लगे कि यहाँ तो स्वामीजी ऐसी बातें करने वाले हैं, जिसका शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं है। इस प्रकार वे लोग किसी शास्त्रज्ञ पंडित को खोजने लगे जो स्वामी जी से शास्त्रार्थ कर सके। उसी क्षेत्र में एक विद्वान् पंडित श्री जयन्त्री प्रसाद जी रहते थे, जिनके बारे में उधर के लोग जानते थे कि ये महान विद्वान पंडित हैं।
अतएव विरोधी पक्ष ने अपने पास पहुँच कर उन्हें शास्त्रार्थ के लिए तैयार कर लिया। जब स्वामीजी के पास उनका संदेश आया तो स्वामीजी ने सिर्फ इतना कहा कि न तो मैं इस शास्त्रार्थ के उद्देश्य से किसी के यहां जाता हूं और न इसके लिए किसी को अपने यहां बुलाता हूं। लेकिन इस बात की चर्चा पूरे क्षेत्र में फैल जाने से और इसके दुष्प्रचार होने से बचने के लिए अन्ततः स्वामीजी ने पंडित जी को उस बगीचे पर आने का आमन्त्रण दे दिया। विद्वान पंडित श्री जयन्त्री प्रसाद जी अपने छात्रों के साथ पधारे और साथ में क्षेत्र की जनता भी काफी संख्या में उपस्थित हो।
स्वामीजी से बातचीत के क्रम में पंडित जी को भान हो गए कि ये वाचकयनानी नहीं हैं, उनके पास तो अध्यात्म का अनुभववादी दिव्य ज्ञान है। जहाँ अध्यात्म-ज्ञान का सूर्य है, वहाँ पूर्वी ज्ञान का दीपक भला कैसे ठहर सकता है? फिर तो स्वय पंडित जी ही स्वामीजी के वचनों को सुनकर मंत्रमुग्ध हो उठे। उन्होंने स्वामीजी की प्रशंसा में एक श्लोक बना कर भी दिया। सर्वत्र स्वामीजी की जय-जयकार होने लगी।
सत्यमेव जयते ‘चित्रार्थ हो गया। इसी घटना के बाद स्वामीजी पुनः आश्रम की गुहा पर योगाभ्यास करने आ गई। वृत्तिकूट की गुहा उनकी योग-प्रयोगशाला थी। वृत्तिकूट की इस पक्की गुहा में स्वामीजी आठों याम कपाट बन्द कर साधना-रत रहते थे। पकड़ी ग्राम के ही एक सन्त श्री रामसुभग सिंह उस समय स्वामीजी की सेवा में अंतर्राष्ट्रीय रहते थे। आप स्वामीजी की गुफा की खिड़की पर कभी फलाहार या दूध आदि रख दिया करते थे। मगर स्वामीजी कभी ले लेते थे और कभी ऐसे ही छोड़ भी देते थे।
स्वामीजी इस वृत्तिकूट की गुफा में अखण्ड-समाधि की अवस्था में रहते थे और किसी को दर्शन भी नहीं देते थे। इस समाधि-अनुष्ठान में स्वामीजी नित्य ब्राह्मुहूर्त में 3 बजे नित्यक्रिया द्वारा अपनी मंजिल में जाते हैं। कभी-कभी कई-कई दिनों तक समाधि में स्थित हो ब्रह्मानन्द में निमग्न रहते थे। उस समय आपके अन्तर्वचन सदैव गुरु-मंडल में ही रहता था। अभी तक जिस स्थान पर समाधि है, उसके सामने और अगल-बगल में सुंदर बाग लगा है, वहाँ पहले एक वट वृक्ष भी था।
सद्गुरुदेव रात्रि में कभी-कभी इस वट वृक्ष के नीचे बैठकर परमानन्द में निमग्न हो जाते थे। इस अखण्ड-समाधि की अवस्था में स्वामीजी को बाहर की सुधि नहीं रहती थी और कभी-कभी तो आसन के नीचे सर्प भी पड़ा रहता था। ऐसी प्रचंड साधना और ऐसे नियमबद्ध सात्विक अनुष्ठान से सद्गुरुदेव योग-समाधि में निमग्न रहते थे।
मगर अंदर की ज्ञानदी के प्रवाह में कुछ उद्विग्नता-सी होने लगी और उस अवस्था में आपको एक प्रकाश की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसी स्थिति में वृत्तिकुट आश्रम पर एक विशेष शक्तिसम्पन्न पुरुष सन्त रूप में प्रकट हुए। इन्हीं सत्पुरुष को स्वामीजी अपना सद्गुरु और ब्रह्मविद्या का आचार्य बतलाते हैं। ब्राह्ममुर्हूत का समय था। सदगुरुदेव नित्यता से निवृत्त होकर लौट रहे थे।
केवल वृत्तिकुत आश्रम पर एक सन्त सत्पुरुष प्रकट हुए और उन्होंने सद्गुरुदेव का गगन-कपाट खोलकर रहस्य बतलाकर कृतार्थ कर दिया। सद्गुरुदेव को इस सत्पुरुष के दर्शन से अपार शान्ति मिली है। वे सन्त पुरुष स्वामीजी को यह भी बतलाये कि कोटि विघ्न आने पर भी गुहा-अनुष्ठान से बाहर आयेंगे। नियमानुसार गुहा में छः महीने तक अनुष्ठान होता है और इस अवधि में कहीं बाहर आना-जाना नहीं रहता है। इस नियम को स्वामीजी भी जानते थे, लेकिन सन्त सत्पुरुष भी उन्हें इस बात की हिदायत दे गए कि आप गुहा में रहकर ही भजन करते रहेंगे, इससे बाहर न आयेंगे।
यह समय वि 0 सं 0 1970 का अर्थात ई 0 सन् 1914 के प्रारम्भ का है, जब सन्त सत्पुरुष का दर्शन हुआ। अध्यात्म-जगत् में ऐसे सन्त सत्पुरुष का दर्शन विरले ही किसी को होता है। स्वामीजी जैसी महान् आत्मा को नित्य अनादि सद्गुरु ने दर्शन देकर कृतार्थ कर दिया। स्वामीजी की साधना को एक प्रकाश-स्तम्भ मिल गया।
इस तरह स्वामीजी की साधना जो सन् 1904 के प्रारम्भ से आरंभ सन् 1914 तक उस अवस्था को प्राप्त हुई जब स्वयं नित्य अनादि कर्मगुरु को वृत्तिकुट आश्रम पर प्रकट होकर उन्हें आध्यात्मिक तत्त्वों का पूर्ण बोध कराना पड़ा है। वृत्तिकुत गुहा-अनुष्ठान में पकड़ी गाँव के रामसुभग सिंह के साथ जो दो अन्य सेवक रहते थे-उनका नाम चेतन दास और राम रतन था। गुहा-अनुष्ठान में ये सेवकों की सेवा सदैव याद की होगी। स्वामीजी रचित स्वर्वेद में इस नित्य अनादि सद्गुरु के वृत्तिकुट आश्रम पर प्रकट होने की चर्चा जगह-जगह आयी है।
जब नित्य अनादि सद्गुरु द्वारा स्वामीजी को सारा ज्ञान प्रदान कर दिया गया है और स्वामीजी को उस अजगुरु की प्रत्यक्ष जानकारी हो गई, तब स्वामीजी को यह अनुभव हुआ कि जब मैं बालापन में अभ्यास करणता था, तब भी इसे सत्ता के सिर पर हाथ रखते हुए मुझे। आशीर्वाद दिया था। इस संदर्भ में एम्पगुरुदेव व स्वर्णवेद ’में लिखते हैं-
बालापन अभ्यास में, मम शिर अंगुल राख।अमर पुरुष वह कौन है , तत्त्व वेत्ता यह भाख।।– स्वर्वेद 1/9/15
उक्त दो परतों में सन्त रूप एम्पगुरु के मिलने का और शब्द-द्वार चेतन लोक की प्राप्ति प्रदान के साथ-साथ वृत्तिकुट-धाम पर उनके दर्शन देने का स्पष्ट विवेचन है।
जब अध्यात्म के पथ पर प्रभु-प्राप्ति के लिए व्याकुलता की सीमा पार होने लगती है, आदि गुरु स्वयं प्रकट हो सभी अध्यात्म-ज्ञान को उजागर करते हैं दिव्य शान्ति प्रदान करते हैं।
स्वामीजी की आध्यात्मिक यात्रा पूर्णता की ओर बढ़ती जा रही थी। नित्य अनादि सद्गुरु की छत्र-छाया मिल चुकी थी। अब उनका अनुग्रह-प्रसाद भी जा रहा था। नित्य अनादि कर्मगुरु ने उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया था। अब उनकी लीला भी होने लगी थी।
इधर नित्य अनादि सद्गुरु प्रकट होते हुए सद्गुरुदेव को ज्ञान की पूर्णता देकर शान्ति प्रदान करते हैं और उधर एक और घटना घटित हो जाती है, जो स्वामीजी को महिमान्वित भी करती है और नित्य अविद्या सद्गुरु के प्रति उनकी धारणा को और अधिक मजबूत करती है। गुहा-अनुष्ठान-काल में किसी भी स्थिति में छः महीने तक बाहर आना-जाना नहीं होता है, इस बात को स्वामीजी जानते थे, फिर भी सन्त सद्गुरु जब दर्शन दिए तो उन्होंने भी जोर देकर इस बात की ओर ध्यान दिलाया। वास्तव में कुछ विशेष लीला होने वाली थी।
इसीलिए सन्त सत्पुरुष ने इस प्रकार की बातें सद्गुरुदेव से की। ऐसा हुआ कि वृत्तिकुट आश्रम से लगभग दस मील की दूरी पर एक खारी ग्राम है। इसी ग्राम में लोगों ने महर्षि सदाफल देव जी महाराज को एक स्थान-विशेष पर बैठे हुए देखा। स्वामीजी छः महीने के गुहा-अनुष्ठान में हैं, इसकी चर्चा उस क्षेत्र में चारों ओर फैल गई थी। कुछ लोगों को आशंका हुई कि गुहा-अनुष्ठान के समय के बाद स्वामीजी यहां कैसे चले गए? कुछ लोग जिज्ञासावश वृत्तिकुत आश्रम पर चले गए और सेवकों से पूछने लगे कि आपके स्वामीजी तो खारी ग्राम में बैठे हुए हैं। सेवक अवाक् रह गए। उन्होंने कहा कि हमारे स्वामीजी तोave से कहीं बाहर गए ही नहीं हैं।
स्नान करने के बाद उनकी लंगोटी अभी भी सामने सूखने के लिए टंगी हुई है। बाहर इस प्रकार की बातचीत और एम्पगुरुदेव के खारी में प्रकट होने की बात स्वामीजीave के ऊपरी भाग में उस समय सुनने वाले थे। उन लोगों की बातचीत सुनकर स्वामीजी अंदर से खाँसे, जिसे सुनकर बाहर में लोगों को विश्वास हो गया कि एम्पगुरुदेव जीवे के अंदर ही हैं। अब तो खारी से आये व्यक्तियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। स्वामीजी एक ही समय में गुफा में भी हैं और इसी समय खारी ग्राम में भी हैं, यह जानकर उन लोगों को सारी बातें एक अलौकिक चमत्कार जैसी लगीं।
सद्गुरुदेव की जय-जयकार होने लगी। लोगों ने यही समझा कि महर्षि सदाफल देव जी महाराज ही अपनी योग-शक्ति से खारी ग्राम में भी प्रकट हो गये हैं। सब स्वामीजी की ही महिमा गाने लगे। स्वामीजी इस घटना को जानकर भाव-प्रवण हो उठे। नित्य अनादि सद्गुरु की ऐसी महती कृपा से वे भाव-विभोर हो गए। स्वामीजी जान गए कि नित्य अनादि सद्गुरु-सत्ता ने उनके रूप का चयन कर उसे अपने प्रकट होने का माध्यम बनाया है।
स्वामीजी की आँखों के सामने वह दृश्य घूम गया जब सन्त महापुरुष ने उनसे कहा था कि आप किसी भी परिस्थिति में गुहा-अनुष्ठान से बाहर नहीं आयेंगे। स्वामीजी समझ गए कि खारी में वे ही सत्पुरुष मेरी आकृति में प्रकट हो कर मेरा ही मान बढ़ाये हैं। उनकी उत्कट इच्छा हुई कि मैं भी नित्य अनादि सद्गुरु का दर्शन वहाँ जाकर करूँ। लेकिन उनकी कही हुई बात याद आ गई कि किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में भी गुहा-अनुष्ठान से बाहर नहीं जाना है।
सद्गुरुदेव जी के द्वारा जब लोगों को यह मालूम हुआ कि खारी में स्वामीजी के स्वरूप में जो व्यक्ति बैठे हैं, वे स्वयं नित्य अनादि सद्गुरु हैं तो सब स्वामीजी की महानता के गीत गाने लगे। खारी ग्राम का वह स्थान पूज्य बन गया है। आज वह स्थान पर एक स्थल स्मृति स्थल ’बना हुआ है, जो उस घटना की याद दिलाता है। सद्गुरुदेव जी अज अमृतगुरु की इस अहैतुकी कृपा से भाव-विभोर हो उठे। ‘स्वर्वेद’ में उन्होंने इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है-
इसकी भाष्य करते हुए अनंत श्री आचार्य धर्मचंद्रदेव जी महाराज लिखते हैं- करते अना नित्य अनादि एम्पगुरुदेव ने खारी गाँव में प्रकट होकर सभी संशय नष्ट कर चंचल मन को स्थिर किया। संवत् १ ९ त्० विक्रमी फाल्गुन कृष्ण पक्ष खट्द ई। ० स ० १ ९ १४ का प्रारम्भ, आश्रम वृत्तिकुट के समीप खारी गाँव में नित्य अनादि सद्गुरुदेव प्रकट हुए थे।… .सद्गुरु सुकृतदेव प्रथम वृत्तिकुत आश्रम पर दर्शन दे अपनी सहज कृपा-दृष्टि से ब्रह्मविद्या की प्राप्ति हुई। खारी में जाकर सद्गुरु सदाफल देव जी के स्वरूप में ही प्रकट हो गये हैं। उसी अवधि में ग्रंथकार एम्पगुरुदेव के सर्वसंशी नष्ट हुए हैं और चंचल मन स्थिर होकर अपने चेतन-प्रकाश को प्राप्त हुआ है। ” ‘
स्वामीजी इस न्यायिक घटना के मर्म को जानते थे। नित्य अनादि सद्गुरु का स्वयं महर्षि सदाफल देव जी महाराज के स्वरूप में ही प्रकट होना-एक आध्यात्मिक रहस्य का दत्त सत्य है। सद्गुरु-पद को स्वीकृत करने के लिए एवं संसार के आचार्य, उपदेष्टा पद को पूर्ण प्रतिष्ठित करने के लिए नित्य अनादि अर्पणदेव महर्षि सदाफल देव जी महाराज के स्वरूप में ही प्रकट हुए। इसीलिए इस रहस्य-भेद को रूपायित करते हुए स्वामीजी ेद स्वर्णवेद ’में लिखते हैं-
स्वामीजी के स्वरूप में नित्य अनादि कर्मगुरु का खारी में प्रकट होने से उन्हें अपार आनन्द की प्राप्ति हुई। उनकी गुहा-अनुष्ठान का कार्य अबाध गति से चलता रहा है। कहा जाता है कि एम्पगुरुदेव का यह गुहा-अनुष्ठान कभी छः महीने का, कभी-कभी एक वर्ष का हुआ करता है। इस तरह वृत्तिकुत आश्रम की गुहा में नियमबद्ध रहकर स्वामीजी ने लगभग 12 वर्षों तक कठोर साधना की। यह अवधि लगभग सन् 1904 से लेकर 1915 तक की है [वि 0 सं 0 1961 से वि 0 सं 0 1972 तक] जो लगभग 12 वर्षों की अवधि होती है।
इस वृतात्विक आश्रम की गुहा के अलावा अन्य वन-प्रिय स्थानों पर भी स्वामीजी ने गुहा-अनुष्ठान की। चित्रकूट से लगभग 60 मील की दूरी पर स्थित वीरपुर यमुना-बेतवा संगमतट पर भी स्वामीजी ने बहुत दिनों तक तपस्या की। इस स्थान पर करील वृक्षों का घना जंगल था और मोर पक्षियों से यह वन अतिन्त सुशोभित लगता था। यहाँ पर भी स्वामी जी छः मास का अनुष्ठान किए हुए थे।
बलिया जिले के ही व जवही ’स्थान पर जो गंगा के दीयर में है, स्वामीजी कुछ काल निवास किए थे। बलिया जिला अंर्तगत बड़का खेत आदि विभिन्न स्थानों पर जो गंगातट पर है, आप तपस्यात रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर लगभग 17 वर्षों सत्रह वर्ष, की अनवरत साधना के पश्चात और कई गुहा-अनुष्ठान के बाद आप पूर्णता को प्राप्त किए हैं और अध्यात्म-ज्ञान के सम्पूर्ण धरातल को स्पष्ट रूप से अपने भीतर उतार कर परम पुरुष परमात्मा के प्रकाश में। परमानन्द को प्राप्त कर अध्यात्म के सर्वोच्च योग पर प्रतिष्ठित हुआ। अनंत श्री आचार्य धर्मचंद्रदेव जी महाराज के शब्दों में – ‘… …… .यसे छः महीने का या एक वर्ष का उनका गुहा-अनुष्ठान होता है।
वृत्तिकूट की गुहा में नियमबद्ध 12 [बारह] वर्ष तक निवास किए गए। इसके बाद अनुष्ठान रूप में गंगा के तट पर बलिया जिले में एक स्थान… .है, वहाँ पर छः मास का अनुष्ठान हुआ था। यह अनुष्ठान प्रारम्भिक काल का था। इसके अतिरिक्त बुंदेलखंड में यमुना-बेतवा के संगम पर वन में छः मास का अनुष्ठान किया गया। आज भी आपके लव-सत्संगी हैं। पुरानी अवस्था तो कालवशात् नहीं रही। यह समय संवत् 1972 विक्रमी [ई 0 सन् 1915] का है। इस तरह के 17 वर्ष सत्रह वर्ष, के परिश्रम के पश्चात यह उन्हें प्राप्त हुआ था। ”
[के सदगुरुदेव कौन थे? ’पुस्तक के ुरु कर्मगुरुदेव जी का संस्मरण’ के लेख से उद्धृत]
इस तरह अनंत श्री आचार्य धर्मचंद्रदेव जी महाराज के द्वारा जगह-जगह पर स्वामीजी के योग-अनुष्ठान की चर्चा आयी है और उनके सत्रह वर्षों की कठोर साधना का भी जिक्र किया गया है। वैसे तो स्वामीजी ने ज्ञान के जिस सर्वोच्च धरातल को प्राप्त किया उसके लिए हजारों वर्ष की साधना भी कम ही कही जागी। अपने वैदिक और पौराणिक कथाओं में ऐसे ऋषि-मुनियों की चर्चा आयी है, जो हजारों साल तपसीर रहे हैं। लेकिन उनके ज्ञान की प्राप्ति या तो किसी वरदान तक आकर ठहर गई है या उन्हें कुछ रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।
मीजी ने अध्यात्म के जिस सर्वोच्च योग को प्राप्त किया था- वहाँ पहुँचने के बहुत पहले ही रिद्धियाँ-सिद्धियाँ हाथ जोड़ कर कर देती हैं। मगर अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने वालों के लिए ये रिद्धियाँ-सिद्धियाँ को त्रास्य कहा गया है। स्वामीजी भी उन्हें योग की प्राप्ति में बाधा मानते थे। इसीलिए स्वामीजी के पास जो शक्ति उपलब्ध हुई थी, वह योग-जगत् की श्रेष्ठतम प्राप्ति थी। स्वामीजी के पास अध्यात्म का श्रेष्ठतम ज्ञान और योग का श्रेष्ठतम ’योग बल’ सहज में उपलब्ध था।
इस तरह सत्रह वर्षों की अनवरत साधना, गुहा-अनुष्ठान और नित्य अनादि सद्गुरु के दर्शन-प्रकाश में स्वामीजी महान् योगीश्वर, महान् प्रज्ञावंग, पूर्ण आनुभविक तत्त्ववेत्ता और अध्यात्म के सर्वोच्च योग पर प्रतिष्ठित हुए हैं। उनका स्थान किसी योगी, मुनि, ऋषि, महात्मा आदि से भी बड़ा ुरु सद्गुरु के पद पर है, जो अध्यात्म-जगत् के मारतंड होते हैं।
सचमुच स्वामीजी अध्यात्म-मार्तण्ड थे, जिनकी कृपा की किरणों से अनेक अध्यात्म-पिपासु, जिज्ञासुदिन का उद्धार हुआ है, आज भी हो रहा है और आगे भी रहेगा। आज कई लोग अपने को एम्पगुरु तो कहते हैं लेकिन नित्य अनादि एम्पगुरु-सत्ता का दर्शन तो दूर रहे, उनके नाम से भी वे परिचित नहीं हैं।
स्वामीजी चाहते तो बाल्यावस्था में ही मंत्र-जाप की उच्चतर भूमि जो उन्हें प्राप्त थी, उससे अपने को सबसे बड़ा मंत्रयोगी घोषित कर सकते थे। आसन-प्राणमय की सिद्धता उन्हें जो युवावस्था में प्राप्त हुई थी वह उन्हें चाहते थे तो अपने को सबसे बड़ा हठयोगी भी घोषित कर सकते थे। सिद्धि-विभूतियाँ जो उनके सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती थी, उसके साथ वे अपने सबसे बड़े सिद्ध पुरुष भी घोषित कर सकते थे। लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया।
बाद में स्वामीजी को नित्य अनादि सद्गुरु के दर्शन प्रयाग, झूँसी में, दण्डकवन आश्रम, बाँसदा [गुजरात] में, शून्यश्रम आश्रम [उत्तराखंड] में और कई अन्य स्थानों पर भी हुआ। स्वामीजी समय-समय पर उस सत्ता के दर्शन से आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाते रहे हैं।
वे निरंतर अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर की ओर बढ़ते चले गए। उन्होंने साधना की पूर्णता को प्राप्त करने के बाद ही प्रचार का संकल्प लिया। उन्होंने इस अद्भुत ज्ञान की आन्तरिक प्रक्रिया को वैदिक धरातल और सन्त-मत दोनों के आधार से सत्यापित किया और इसके विधिवत् दीक्षा सुयोग्य जिज्ञासुओं को देने के लिए एक क्रम भी बनाया। योग की पांच भूमियों का क्रम।
आज विहंगम सन्त-समाज के योग की जिन पाँच भूमियों की चर्चा होती है, वह स्वामीजी की विश्व के लिए एक अद्भुत आध्यात्मिक साहित्य है। सारा विश्व उनके इस दिव्य ज्ञान के लिए सदा ऋणी रहेगा। अध्यात्म के सर्वोच्च योग पर स्थित स्वामी जी ने ेद स्वर्णवेद ’नामक आध्यात्मिक एम्पग्रन्थ की रचना की, जो अध्यात्म-जगत् की एक अनुपम धरोहर है।
सन्तमत के भावज्ञान को दर्शाने के लिए एक ओर भाष बीजक भाष्य ’लिखा तो दूसरी ओर वेदविहित ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए र्वे चतुर्वेदीय ब्रह्मविद्या भाष्य’ भी लिखा। वेद-मत और सन्त-मत की सादृश्यता को दर्शाने के लिए स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से कहा कि ये दोनों के तात्त्विक ज्ञान में कोई भिन्नता नहीं है। वाचक-ज्ञानी ही भेद पैदा करते हैं। इसी तरह वैज्ञानिक विचारों को भी स्वामीजी ने चुनौती दी और सृष्टि-रचना के क्रम को भी अपने योगजन्य अनुभव के आधार पर प्रतिदिन करते हुए विज्ञान-जगत् को भी झकझोर दिया-
अंत में ब्रह्मविद्या तो सभी विद्याओं की जननी है। ब्रह्मविद्या के अंदर ही प्राकृतिक और आध्यात्मिक उन्नति के सभी साधन हैं।
स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से बतलाया कि ब्रह्मविद्या के दो भेद हैं- एक बाह्य तत्त्वज्ञान और दूसरा आभ्यन्तर भेद-साधन। स्वामी जी की वाणी है-
बाह्य तत्त्वज्ञान के रूप में प्रकृति, काल, आत्मा, सद्गुरु, अक्षर-ब्रह्म और परमात्मा-ब्रह्म की पूर्ण व्याख्या स्वामीजी के अभिग्रंथ व स्वर्वेद ’में आयी है। आभ्यन्तर भेद-साधन की प्रक्रिया का संकेत भी अकवेद में जगह-जगह आया है। मगर साधना की भेद-युक्ति तो एम्पगुरु से ही सीखनी पड़ती है।
स्वामीजी ने ब्रह्मविद्या के ज्ञान को सर्वसुलभ बनाने के लिए पाँच कोटियों के उपदेश की व्यवस्था की। उन्होंने स्पष्ट रूप से बतलाया कि कोटि-भेद तो साधना की श्रेणियाँ हैं। बाहरी पूजा-पाठ में आगे बढ़ने का ही फल मिलता है कि आन्तरिक पूजा करनेलाने वाले समर्थ सद्गुरु की प्राप्ति होती है। अब आन्तरिक पूजा-पाठ की कुछ प्रारम्भिक श्रेणियाँ हैं जिनमें आसन-प्राणायाम, मंत्र-जाप आदि आते हैं। इसलिए योग की प्राथमिकता: तीन श्रेणियों मानी जाती हैं-पहला योग और शरीर यानी पिपिल योग, दूसरा योग और मन यानी कपिल योग और तीसरा योग और आत्मघाती अर्थात विहंगम योग।
शरीर के आधार पर चलने वाली क्रियाएँ िप पिपिल मार्ग ’हैं तो मन के आधार पर चलने वाली क्रियाएँ अर्थात मन को विभिन्न केंद्रों पर रोकने का अभ्यास कपिल योग है और इससे आगे आत्महत्या के आधार पर चलने वाली क्रिया विहंगम योग है। ब्रह्मविद्या का यही सर्वोच्च धरातल है। प्रारम्भ में तो सबको शरीर के योग से ही शुरू करना है लेकिन आगे बढ़ते हुए मन को विभिन्न केन्द्रों पर रोकने का अभ्यास और अंतर में आत्महत्या को उस विभु-चेतना ख्परमात्मा, से जोड़ने का प्रयास ही योग का मुख्य लक्ष्य है। इस समस्त प्रक्रिया को एम्पगुरु के ज्ञान-प्रकाश में करना नितान्त आवश्यक है। विहंगम योग की प्रारम्भिक तीन श्रेणियाँ [विहंगम योग की तीन भूमियाँ] प्रकृति-मंडल के अंदर हैं और शेष दो भूमियाँ चेतन-मंडल में हैं। चेतन आत्मा से चेतन परमात्मा की प्राप्ति ही योग का अंतरिम उद्देश्य है। इसीलिए स्वामीजी ने कहा है-
यानी योग तो परम पुरुष और जीवात्मा के निरन्तर सम्बन्ध को कहते हैं, जहाँ जड़-प्रकृति का प्रभाव नहीं रहता और न कभी दोनों (आत्मा-परमात्मा) का सम्बन्ध टूटता है। असली योग तो यहीं पर घटित होता है।
इस तरह स्वामीजी ने योग का सर्वोच्च धरातल हमें प्रदान किया और मानवमात्र के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक कल्याण के लिए एक पूर्ण आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त किया। इस ब्रह्मविद्या विहंगम योग को ही स्वामी जी ने ‘सहज योग’ भी कहा। सहज योग की महता सम्पलाते हुए उन्होंने कहा-
स्वामी जी ने सत्यज्ञान के प्रचार के बारे में स्पष्ट रूप से कहा –
सत्यज्ञान का उपदेश विश्व के सारे मानव के लिए करने के सम्बन्ध में स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की-
अन्त में स्वामी जी कहते हैं, कि तटस्थकम्प परमाक्षर को और अक्षर के कम्प को बौद्धिक धरातल पर नहीं समझ सकते हैं, इसका प्रत्यक्ष दर्शन साधन-अनुभव में होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विहंगम योग के प्रणेता महर्षि सदाफल देव जी महाराज एक पूर्ण तत्त्ववेत्ता हैं जो परमाणु से लेकर परमात्मा तक का सम्पूर्ण ज्ञान अपने अनुभव के आधार पर स्पष्ट रूप से सम्पलाते हैं।
आज विज्ञान इतना आगे बढ़ गया है, लेकिन सारी सुख-सुविधाएँ जिस विज्ञान रूपी जहाज पर रखी जाती हैं, उसमें डासूचक यंत्र ही नहीं हैं।] इस दोसुचक यंत्र के बिना विज्ञान विनाश का कारण बन सकता है। अंत में डासूचक यंत्र आयेगा कहां से? स्वामीजी ने इस बारे में भी कहा है कि अध्यात्म और सत्संग की शक्ति ही डासुचक यंत्र का कार्य करेगी और विज्ञान को दिशा-बोध करेगी।
आज विज्ञान को भी इस बात को समझने की जरूरत है कि अध्यात्म के बिना यह विनाशकारी बनकर रहेगा। अध्यात्म को भी शुद्ध तत्त्वज्ञान के प्रकाश में विज्ञान को दिशा-बोध देना होगा। इसी में विश्व का काल है।
विश्व-काल की भावना से ओत-प्रोत के ही स्वामीजी ने हमें विश्वमानवता का संदेश दिया। सभी जटिलताओं से ऊपर उठकर मानवमात्र को सम्बोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा –
यानी ब्रह्मविद्या का अधिकारी सम्पूर्ण मानवजाति है। केवल हृदय में प्रेम होना चाहिए। धर्म के नाम पर विभेद पैदा करने वालों के प्रति यह एक चेतावनी भी है।
इसी प्रकार के समाज में नारी-अधिकार को भी समान दर्जा देते हुए स्वामी जी ने उन्हें भी समान रूप से साधन करने का अधिकार दिया और स्पष्ट रूप से कहा –
स्वामीजी ने विश्व के समस्त मानवों के लिए सुख-शान्ति की कामना करते हुए कहा –
उनके इस मंगल-गान में सभी भिन्न-भावों को मिटाकर सुख-शान्ति की स्थापना का संकेत है।
इस तरह महर्षि सदाफल देव जी महाराज अध्यात्म की गंगा के गोमुख बनकर अपने ज्ञान को इस धराधाम पर उतार लये और धर्म के नाम पर पनपे अन्ध नीतिओं, कुरीतियों, मिथ्या कर्मकांडों की भर्त्सना करते हुए शुद्ध तत्त्वज्ञान से लोगों को परिचित कराया। अपने जीवन के एक-एक क्षण को उन्होंने मानवता के कल्याण में लगा दिया।
प्रयाग के झूँसी की तपोभूमि में आपने माघ शुक्ल नवमी वि 0 सं 0 2010 (सन् 1954) को महाकुम्भ के अवसर पर योगासन में बैठकर अपने शरीर का परित्याग कर दिया। अपने देहत्याग के उपरान्त स्वामीजी ने अक्षर-मंडल से आकाशवाणी द्वारा सबको चैंका दिया। स्वामीजी ने आकाशवाणी द्वारा ही कहा – ने यहाँ मैं यहाँ हूँ जहाँ से शब्द हो रहा है। अक्षर-मंडल से वाणी हो रही है। ” मृत्यु-कला का ज्ञान योगी को होता है।
स्वामीजी की समाधि झूँसी-धाम पर ही बनी हुई है। आज भी कई भक्त-किशोर उस समाधि पर माथा टेक कर आध्यात्मिक ऊर्जा अर्जित करते हैं। यह समाधि देश-विदेश के लाखों अनुयायियों की श्रद्धा का केन्द्र है। स्वामीजी अध्यात्म-जगत् के सूर्य हैं और सूर्य को किसी से ऊर्जा लेने की आवश्यकता नहीं रहती है। कोई भी पावर-प्लांट सूर्य को अपनी ऊर्जा देने में समर्थ नहीं है। इसी परिप्रेक्ष्य में इस महान् ज्ञान में किसी प्रकार का जोड़-घटाव विस्तार नहीं है। यह तो ‘पूर्णमिदं’ में अध्यात्म का है। किसी वाचक-प्रदर्शन से इस आन्तरिक दर्शन को नहीं मिलाया जा सकता है।
स्वामीजी योग-व्योम के दिनकर हैं और अध्यात्म के सर्वोच्च योग हैं। आज के इस वैश्विक बाजार के युग में भी स्वामीजी का ज्ञान किसी विज्ञापन की भाषा का मोहताज नहीं है। ज्ञान के ऊपर किसी आवश्यक ग्राहक-सन्तुष्टि का लेबल लगाने की भी जरूरत नहीं है। शुद्ध जिज्ञासु को तो स्वचालित इस ज्ञान के प्रकाश में सन्तुष्टि मिल होनागी। स्वामीजी निसन्देह अध्यात्म-मारतण्ड हैं और उनकी आध्यात्मिक यात्रा युगों तक मानवमात्र के कल्याणार्थ मार्गदर्शन करती रहेगी। ऐसी अध्यात्म-मार्तण्ड मनीषी को शत-शत नमन!
sadguru sadafal dev ji maharaj Dandakvan Ashram
BHAKT RECEIVING GYAN FROM SAINT SRI VIGYAN DEV JI, MAHARISHI SADAFAL DEV ASHRAM BOKARO